Shiksha Me Her – Fer : रवींद्रनाथ टैगोर का जन्म बंगाल के प्रसिद्ध टैगोर वंश में 1861 ई० में कोलकाता में हुआ था । उनके पिता महर्षि देवेंद्रनाथ टैगोर थे। टैगोर परिवार अपनी समृद्धि, कला, विद्या एवं संगीत के लिए संपूर्ण बंगाल में प्रसिद्ध था। वे अपने भाई-बहनों में सबसे छोटे थे। उन्होंने अपने यश से न केवल टैगोर परिवार, वरन् संपूर्ण देश को गौरव प्रदान किया।
टैगोर को सर्वप्रथम ऑरिएंटल सेमिनरी स्कूल में भर्ती किया गया, परंतु उनका मन वहाँ नहीं लगा। इस कारण उनको कुछ महीनों के बाद नॉर्मल स्कूल में दाखिला दिलाया गया। इस स्कूल में उन्हें कुछ कटु अनुभव प्राप्त हुए जिसके परिणामस्वरूप आगे चलकर उन्होंने आजीवन शिक्षा सुधार के लिए प्रयास किया और आदर्श शिक्षा संस्था के रूप में 1901 ई० में ‘शांति निकेतन’ की स्थापना की जो आज ‘विश्वभारती विश्वविद्यालय’ के नाम से प्रख्यात है।
शिक्षा में हेर फेर रविन्द्र नाथ टैगोर
1878 में टैगोर अपने भाई के साथ उच्च शिक्षा प्राप्त करने इंग्लैंड गए परंतु वहाँ अधिक दिनों तक नहीं रहे। 1880 ई० में वे स्वदेश लौटे। 1881 ई० में पुनः इंग्लैंड गए। वे वहाँ कानून की शिक्षा प्राप्त करने के ध्येय से गए थे परंतु विचार परिवर्तन के कारण पुनः वापस लौट आए ।
1901 में टैगोर ने बोलपुर के निकट शांति निकेतन की स्थापना की। उन्होंने इसमें स्वयं अध्यापक के रूप में कार्य किया। यह संस्थान आध्यात्मिक उदारता एवं विभिन्न संस्कृतियों के संगम-स्थल के रूप में दिन-प्रतिदिन उन्नति करता गया। 1919 ई० में जलियाँवाला बाग हत्याकांड के उपरांत औपनिवेशिक सत्ता से विक्षुब्ध होकर उन्होंने ‘नाइट हुड’ की उपाधि लौटा दी।
वे साहित्य की सेवा अनवरत करते रहे और महान कवि और साहित्यकार के रूप में विश्वविख्यात हुए। 1913 ई० में उन्हें ‘गीतांजलि’ पर नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ। उनकी प्रमुख कृतियाँ है: काव्यसंग्रह ‘मानसी’, ‘सोनारतारी’, ‘चित्रा’, ‘चैतालो’, ‘कल्पना’, ‘क्षणिक’, ‘गीतांजलि’; उपन्यास ‘गोरा’; काव्य नाटक ‘चित्रांगदा’; कहानी संग्रह ‘गल्प गुच्छ’ । इन रचनाओं के अतिरिक्त शिक्षा, साहित्य, कला, संस्कृति आदि विभिन्न विषयों पर उनके अनेक लेख प्रकाशित और चर्चित हुए ।
शिक्षा में हेर – फेर
जो अत्यावश्यक है उसी में आबद्ध होकर रह जाना मानव जीवन का धर्म नहीं है । आवश्यकताओं की श्रृंखला से हम किसी सीमा तक बद्ध हैं, लेकिन हम स्वाधीन भी हैं। हमारी शरीर साढ़े तीन हाथ में सीमित है, लेकिन उसके लिए साढ़े तीन हाथ का घर बनाने से काम नहीं चलेगा ।
चलने-फिरने के लिए यथेष्ट स्थान रखना जरूरी है, वरना हमारे स्वास्थ्य और आनंद दोनों में बाधा पड़ेगी । शिक्षा के विषय में भी यही बात लागू होती है। जो कम-से-कम जरूरी है वहीं तक शिक्षा को सीमित किया गया तो बच्चों के मन की वृद्धि नहीं हो सकेगी । आवश्यक शिक्षा के साथ स्वाधीनता के पाठ को मिलाना होगा, अन्यथा बच्चे की चेतना का विकास नहीं होगा ।
आयु बढ़ने पर भी बुद्धि की दृष्टि से वह सदा बालक ही रहेगा। लेकिन दुर्भाग्य से हमारे पास समय की कमी होती है। हम चाहते हैं कि जितना शीघ्र हो सके, विदेशी भाषा सीखकर, इम्तहान पास करके काम में जुट जाएँ।
इसलिए बचपन से ही हाँफते-हाँफते, दाएँ-बाएँ न देखकर जल्दी-जल्दी सबक याद करने के अलावा और कुछ करने का हमारे पास समय नहीं होता। बच्चों के हाथ में यदि कोई मनोरंजन की पुस्तक दिखाई पड़ी तो
वह फौरन छीन ली जाती है। परिणामस्वरूप, हमारे बच्चों को व्याकरण, शब्दकोश, भूगोल के अतिरिक्त और कुछ नहीं मिलता – उनके भाग्य में अन्य पुस्तकें नहीं हैं। दूसरे देशों के बालक जिस आयु में अपने नए दाँतों से बड़े आनंद के साथ गन्ना चबाते हैं, उसी आयु में हमारे बच्चे स्कूल की बेंच पर अपनी दो दुबली-पतली टाँगों को हिलाते हुए मास्टर के बेंत हजम करते हैं और उसके साथ उन्हें कड़वी गालियों के अलावा दूसरा कोई मसाला भी नहीं मिलता है ।
इससे उनकी मानसिक पाचन शक्ति का ह्रास होता है । जिस तरह भारत की संतानों का शरीर उपयुक्त आहार और खेल-कूद के अभाव से कमजोर रह जाता है उसी तरह उनके मन का पाकाशय भी अपरिणत रह जाता है ।
हमारी शिक्षा में बाल्यकाल से ही आनंद के लिए स्थान नहीं होता । जो नितांत आवश्यक है उसी को हम कंठस्थ करते हैं । इससे काम तो किसी-न-किसी तरह चल जाता है, लेकिन हमारा विकास नहीं होता । हवा से पेट नहीं भरता – पेट तो भोजन से ही भरता है। लेकिन भोजन को ठीक से हजम करने के लिए हवा आवश्यक है ।
वैसे ही, एक ‘शिक्षा पुस्तक’ को अच्छी तरह पचाने के लिए बहुत-सी पाठ्यसामग्री की सहायता जरूरी है । आनंद के साथ पढ़ते रहने से पठन-शक्ति भी अलक्षित रूप से बढ़ती है; सहज-स्वाभाविक नियम से ग्रहण-शक्ति, धारणा-शक्ति और चिंता-शक्ति भी सबल होती है ।
लेकिन मानसिक शक्ति का ह्रास करने वाली इस निरानंद शिक्षा से हमें कैसे छुटकारा मिलेगा कुछ समझ में नहीं आता । अंग्रेजी विदेशी भाषा है। शब्द-विन्यास और पद-विन्यास की दृष्टि से हमारी भाषा के साथ उसका कोई सामंजस्य नहीं ।
भावपक्ष और विषय-प्रसंग भी विदेशी होते हैं। शुरू से आखिर तक सभी अपरिचित चीजें हैं, इसलिए धारणा उत्पन्न होने से पहले ही हम रटना आरंभ कर देते हैं। फल वही होता है जो बिना चबाया अन्न निगलने से होता है। शायद बच्चों की किसी ‘रीडर’ में Hay-making का वर्णन है।
अंग्रेज बालकों के लिए यह एक सुपरिचित चीज है और उन्हें इस वर्णन से आनंद मिलता है । Snowball से खेलते हुए Charlie का Katie से कैसे झगड़ा हुआ यह भी अंग्रेज बच्चे के लिए कुतूहलजनक घटना है। लेकिन हमारे बच्चे जब विदेशी भाषा में यह सब पढ़ते हैं तब उनके मन में कोई स्मृति जागृत नहीं होती, उनके सामने कोई चित्र प्रस्तुत नहीं होता । अंधभाव से उनका मन अर्थ को टटोलता रह जाता है ।
परिणाम यह होता है कि दोनों उत्तरोत्तर एक-दूसरे के विरोधी होते जाते हैं। हमारी जो पुस्तकीय विद्या है उसकी विपरीत दिशा में जीवन को निर्देशित करते-करते हमारे मन में उस विद्या के प्रति अविश्वास और अश्रद्धा का जन्म होता है। हम सोचते हैं कि वह विद्या एक सारहीन और मिथ्या वस्तु है और समस्त योरोपीय सभ्यता इसी मिथ्या पर आधारित है।
जो कुछ हमारा है वह तो सत्य है और जिधर विद्या हमें ले जाती है उधर सभ्यता नामक एक मायाविनी का साम्राज्य है। हम यह नहीं देखते हैं कि विशेष कारणों से हमारे लिए यह शिक्षा निष्फल सिद्ध हुई है; बल्कि हम यह स्थिर करते हैं कि इस विद्या के अंदर स्वभावतः एक वृहत् निष्फलता विद्यमान है।
इस तरह जब हम शिक्षा के प्रति अश्रद्धा व्यक्त करते हैं तब शिक्षा भी हमारे जीवन से विमुख हो जाती है। हमारे चरित्र के ऊपर शिक्षा का प्रभाव विस्तृत परिमाण में नहीं पड़ता। शिक्षा और जीवन का आपसी संघर्ष बढ़ता जाता है। वे एक-दूसरे का परिहास करते हैं।
जीवन का तिहाई हिस्सा हम जिस शिक्षा में बिताते हैं वह यदि हमारे संपूर्ण जीवन से असंलग्न हो जाए, और किसी अन्य विद्या के प्राप्त करने का अवसर हमें न मिले, तो अपने अस्तित्व को सार्थक बनाने का कोई साधन हमारे पास नहीं रह जाता। इसलिए शिक्षा और जीवन में सामंजस्य निर्माण करने की समस्या आज हमारे लिए सर्वप्रधान विचारणीय विषय है । पहले ही कह चुका हूँ, हमारे बाल्यकाल की शिक्षा में भाषा के साथ भाव नहीं होता, और
जब हम बड़े होते हैं तो परिस्थिति इसके ठीक विपरीत हो जाती है। अब भाव होते हैं, लेकिन उपयुक्त भाषा नहीं होती । इस बात का भी पहले उल्लेख कर चुका हूँ कि भाषा शिक्षा के साथ-साथ भाव-शिक्षा की वृद्धि न होने से योरोपीय विचारों से हमारा यथार्थ संसर्ग नहीं होता, औरउपलब्ध करके बलिष्ठ नहीं हो पाता, जिन चीजों की उसे जरूरत है वे उसके पास नहीं हैं ।
कहानी है कि एक निर्धन आदमी जाड़े के दिनों में रोज भीख माँगकर गरम कपड़ा बनाने के लिए धन-संचय करता, लेकिन यथेष्ट धन जमा होने तक जाड़ा बीत जाता । उसी तरह जब तक वह • गर्मी के लिए उचित कपड़े की व्यवस्था कर पाता तब तक गर्मी भी बीत जाती । एक दिन जब देवता ने उस पर तरस खाकर उसे वर माँगने को कहा तो वह बोला, ‘मेरे जीवन का यह हेर-फेर दूर करो, मुझे और कुछ नहीं चाहिए।
मैं जीवन भर गर्मी में गरम कपड़े और सर्दी में ठंढे कपड़े प्राप्त करता रहा हूँ। इस परिस्थिति में संशोधन कर दो बस, मेरा जीवन सार्थक हो जाएगा ।’ हमारी प्रार्थना भी यही है। हेर-फेर दूर होने से ही हमारा जीवन सार्थक होगा । हम सर्दी में गरम कपड़े और गर्मा में ठंढे कपड़े जमा नहीं कर पाते तभी हमारे जीवन में इतना दैन्य है –
वरना हमारे पास है सब-कुछ । हम विधाता से यही वर माँगते हैं हमें क्षुधा के साथ अन्न, शीत के साथ वस्त्र, भाव के साथ भाषा और शिक्षा के साथ जीवन प्राप्त करने दो। हमारी दशा तो वैसी ही है कि :
इसीलिए आजकल बहुत-से शिक्षित लोग योरोपीय विचारों के प्रति अनादर व्यक्त करने लगे हैं। दूसरी ओर, जिन लोगों के विचारों से मातृभाषा का दृढ़ संबंध नहीं होता वे अपनी भाषा से दूर हो जाते हैं और उसके प्रति उनके मन में अवज्ञा की भावना उत्पन्न होती है ।
हम चाहे जिस दिशा से देखें, हमारी भाषा, जीवन और विचारों का सामंजस्य दूर हो गया है। हमारा व्यक्तित्व विच्छिन्न होकर निष्फल हो रहा है; वह अपने बीच कोई अखंड ऐक्य।
अभ्यास प्रश्न शिक्षा में हेर-फेर
1. बच्चों के मन की वृद्धि के लिए क्या आवश्यक है ?
2. आयु बढ़ने पर भी बुद्धि की दृष्टि में वह सदा बालक ही रहेगा । कैसे ?
3. बच्चों के हाथ में यदि कोई मनोरंजन की पुस्तक दिखाई पड़ी तो वह फौरन क्यों छीन ली जाती है ? इसका क्या परिणाम होता है ?
4. “हमारी शिक्षा में बाल्यकाल से ही आनंद का स्थान नहीं होता ।” आपकी समझ से इसकी क्या वजह हो सकती है ?
5. हमारे बच्चे जब विदेशी भाषा पढ़ते हैं तब उनके मन में कोई स्मृति जागृत क्यों नहीं होती ?
6. अंग्रेजी भाषा और हमारी हिंदी में सामंजस्य नहीं होने के कारणों का उल्लेख करें ।
7. लेखक के अनुसार प्रकृति के स्वराज्य में पहुँचने के लिए क्या आवश्यक है ?
8. जीवन-यात्रा संपन्न करने के लिए क्या आवश्यक है ?
9. रीतिमय शिक्षा का क्या अभिप्राय है ?
10. शिक्षा और जीवन एक-दूसरे का परिहास किन परिस्थितियों में करते हैं ?
11. मातृभाषा के प्रति अवज्ञा की भावना किस तरह के लोगों के मन में उत्पन्न होती है ?
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