Malik Muhammad jayasi Chapter 11 : मलिक मोहम्मद जायसी 15वीं शताब्दी उतारार्ध अनुमानतः 1942 में इनका जन्म हुआ था मलिक मोहम्मद जायसी की मृत्यु 548 ईस्वी में अनुमानतः हुआ इनका निवास स्थान जायस, कब्र अमेठी उत्तर प्रदेश अवनीश के पिता का नाम मलिक शेख ममरेज एवं उनके गुरु सूफी संत शेख मोहिदी और सैयद अशरफ जहांगीर प्रारंभिक में जायस में रहते हुए किसानी बाद में शेष जीवन फकीरी में, बचपन में ही अनाथ साधु फकीरों के साथ भटकते हुए बचपन बिताया इनके व्यक्तित्व चेचक के कारण रूपहीन तथा बाई आंख और कम से वंचित।
मलिक मुहम्मद जायसी का जीवन परिचय?
लोक जीवन में प्रचलित प्रेम कथाओं को आधार बनाकर छंदोंबद्ध कथा कव्य लिखने की परिपाटी प्राकृतिक और अपभ्रंश साहित्य में रही थीं। संभव है यह संस्कृत में भी रही हो यह परिपाटी साधारण जनजीवन के प्रत्यक्ष कहते हैं चौपाई दोहा आदि की कड़बक शैली मैं निबंध एक काव्य प्रायः अवधी में मिलते हैं। किसानों और कारीगरों की भाषा अवधि में ब्रज की गीतिमयता और कोमलता की तुलना में कथावृत्तियों को विवरण और विस्तार में सहेज सकने की क्षमता थी ।
इस्लाम और उसके साथ तसव्वुफ (सूफी मत) के आगमन के बाद इस प्रेमाख्यानक काव्य-परंपरा में अनेक मुसलमान कवि हुए जिन्होंने पहले से जन-प्रचलित प्रेम कहानियों को सूफी प्रेम साधना के अभिप्रायों से संबलित कर काव्य के रूप दिए । मुल्ला दाउद से लेकर जानकवि और उससे भी आगे तक यह परंपरा अबाध रूप से चलती रही । मलिक मुहम्मद जायसी इस परंपरा की अन्यतम कड़ी हैं।
जायसी के लिखे अनेक काव्य प्राप्त होते हैं जो आचार्य रामचंद्र शुक्ल, डॉ० माताप्रसाद गुप्त आदि अनेक विद्वानों द्वारा अलग-अलग ‘जायसी ग्रंथावली’ के नाम से संपादित हैं। जायसी की उज्ज्वल अमर कीर्ति का आधार है उनका महान कथाकाव्य ‘पद्मावत’ जिसमें चित्तौड़ नरेश रतनसेन और सिंहल द्वीप की राजकुमारी पद्मावती की प्रेमकथा है। इस प्रेमकथा का त्रिकोण पूरा होता है दिल्ली के सुलतान अलाउद्दीन के इस कहानी से जुड़ जाने से । अंशतः ऐतिहासिक आधार वाली इस कहानी का विकास जनश्रुतियों एवं आगे स्वयं कवि की सर्जनात्मक कल्पना द्वारा हुआ है।
मलिक मोहम्मद जायसी की प्रमुख रचनाएं?
- अखरावट
- सखरावत
- चंपावत
- मटकावत
- मोराईनामा
- इतरावत
- चित्रावत
- मुकहरानामा
- सुर्वानामा
- होलीनामा
- पोस्तीनामा
- धनावत
- मुखरानामा
- सोरठ
- जपजी
- आखिरी कलाम
- मेखरावटनामा
- कहरानामा
- मैनावत
- स्फुट कवितायें
- लहतावत
- सकरानामा
- मसला या मसलानामा
मलिक मुहम्मद जायसी ‘प्रेम की पीर’ के कवि हैं। मार्मिक अंतर्व्यथा से भरा हुआ यह प्रेम अत्यंत व्यापक, गूढ़ आशयों वाला और महिमामय है। यह प्रेम अनुभूतिमय, रासायनिक एवं इस अर्थ में क्रांतिकारी है कि यह विभिन्न पात्रों को अमिट चरित्रों के रूप में निखारते हुए उन्हें एक दिशा देकर परिणतियों तक पहुँचा देता है । ‘पद्मावत’ के आख्यान में सजीव कहानी का मर्मस्पर्शी वेदनामय रस है और चरित्रों, उनके सुलगते-दहकते मनोभावों के दुर्निवार प्रभाव हैं जो पाठकों-श्रोताओं को अपने लपेटे में ले लेते हैं। इस प्रेमाख्यानक काव्य द्वारा विद्वेष और कलह के उस यंत्रणामय कठिन समय में
मलिक मुहम्मद जायसी की भाषा शैली
जायसी की भाषा का रूप ठेठ अवधी है। किंतु कहीं-कहीं उसमें अपभ्रंश, अरबी और फारसी के शब्द भी मिलते हैं। ब्रजभाषा और खड़ी बोली दोनों में विभिन्नता होते हुए भी उनकी रचनाओं में बोलचाल की लोकभाषा का उत्कृष्ठ उपयोग व भाव का रूप देखने को मिलता है। जायसी की काव्य रचनाओं का आधार लोकजीवन का व्यापक अनुभव है। वहीं उनकी काव्य भाषा पर लोक संस्कृति का प्रभाव स्पष्ट नजर आता है जो उनकी रचनाओं को नया अर्थ और सौंदर्य प्रदान करता है।
मलिक मुहम्मद जायसी की मृत्यु
‘आचार्य रामचंद्र शुक्ल’ ने ‘काजी नसरुद्दीन हुसैन जायसी’ के हवाले से बताया है कि जायसी की मृत्यु 949 हिजरी यानी 1542 ईस्वी को अमेठी में हुई थी। वहीं उनकी कब्र है। वहीं वर्तमान में मलिक मुहम्मद जायसी द्वारा लिखी किताबें देश के कई बड़े विश्वविद्यालय और शैक्षिक संस्थान में पढ़ाई जाती हैं।
धार्मिक-सांस्कृतिक-सामाजिक सद्भाव और साझेदारी की एक ऐसी जमीन जायसी ने तैयार की जो हमारी बहुमूल्य विरासत का हिस्सा है। जायसी की इस प्रेम कहानी में प्राणों का प्राणों से, हृदय का हृदय से, मर्ग का मर्म से और जीवन विवेक का जीवन विवेक से ऐसा मानवीय मेल है जो उनके काव्य को बहुत ऊँचा उठा देता है और उसमें व्यापकता और गहराई एक साथ ला देता है। खाँड़ जैसी मीठी और खालिस अवधी में लिखे गए इस काव्य में कवि की विशालहृदयता, मार्मिक अंतर्दृष्टि और लोकजीवन के विस्तृत
ज्ञान की अभिव्यक्ति हुई है। यहाँ प्रस्तुत दो कड़बक अलग-अलग संकलित हैं। ये पद्मावत के क्रमशः प्रारंभिक और अंतिम छंदों में से हैं, किंतु कवि और काव्य की विशेषताएँ निरूपित करते हुए दोनों के बीच एक अद्वैत की व्यंजना करते हैं। प्रारंभिक स्तुतिखंड से लिए गए प्रथम कड़बक में कवि एक विनम्र स्वाभिमान के साथ अपनी रूपहीनता और एक आँख के अंधेपन को प्रकृतिप्राप्त दृष्टांतों द्वारा महिमान्वित करते हुए रूप से अधिक अपने गुणों की ओर हमारा ध्यान खींचते हैं। इन गुणों के ही कारण ‘पद्मावत’ जैसे मोहक काव्य की रचना हो सकी ।
अंत के उपसंहार खंड से लिए गए द्वितीय कड़बक में कवि अपने काव्य और उसकी कथासृष्टि के बारे में हमें बताते हैं। वे कहते हैं कि उन्होंने इसे रक्त की लेई लगाकर जोड़ा है जो गाड़ी प्रीति के नयनजल में भिगोई हुई है। अब न वह राजा रत्नसेन हैं और न वह रूपवती पद्मावती रानी है, न वह बुद्धिमान सुआ है और न राघवचेतन या अलाउद्दीन हो । इनमें कोई आज नहीं रहा किंतु उनके यश के रूप में कहानी रह गई है। फूल झड़कर नष्ट हो जाता है पर उसकी खुशबू रह जाती है। कवि यह कहना चाहता है कि एक दिन व्याह भी नहीं रहेगा पर उसकी कीर्ति सुगंध की तरह पीछे रह जाएगी। जो भी इस कहानी को पढ़ेगा वही उसे दो शब्दों में स्मरण करेगा । कवि का अपने कलेजे के खून से रचे इस काव्य के प्रति यह आत्मविश्वास अत्यंत सार्थक और बहुमूल्य है ।
कड़बक
(1)
एक नैन कवि मुहमद गुनी । सोइ बिमोहा जेई कबि सुनी । चाँद जइस जग बिधि औतारा । दीन्ह कलंक कोन्ह उजिआरा । जग सूझा एकइ नैनाहाँ । उवा सूक अस नखतन्ह माहाँ । जौं लहि अंबहि डाभ न होई । तौ लहि सुगंध बसाइ न सोई। कौन्ह समुद्र पानि जौं खारा । तौ अति भएउ असूझ अपारा । जौं सुमेरु तिरसूल बिनासा । भा कंचनगिरि लाग अकासा । जौं लहि घरी कलंक न परा। जाँच होइ नहिं कंचन करा । एक नैन जस दरपन औ तेहि निरमल भाउ । लख रूपवंत गहि मुख जोवहिं कइ चाउ ।।
(2)
मुहमद यहि कबि जोरि सुनावा । सुना जो पेम पीर गा पावा । जोरी लाइ रकत कै लेई । गाढ़ी प्रीति नैन जल भेई । औ मन जानि कबित अस कीन्हा। मकु यह रहै जगत महँ चीन्हा । कहाँ सो रतनसेनि अस राजा। कहाँ सुवा असि बुधि उपराजा । कहाँ अलाउद्दीन सुलतानू । कहँ राघौ जेई कीन्ह बखानू । कहँ सुरूप पद्मावति रानी। कोइ न रहा जग रही कहानी । 50 धनि सो पुरुख जस कीरति जासू । फूल मरै पै मरै न बासू । केई न जगत जस बेंचा केई न लीन्ह जस मोल । जो यह पढ़ें कहानी हम सँवरै दुइ बोल ।।
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