Gram Geet ka Marm : लक्ष्मीनारायण सुधांशु का जन्म 18 जनवरी 190% ई० में बिहार प्रांत के पूर्णिया जिला के चंदवा-रूपसपुर गाँव में हुआ था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा गाँव और शहर दोनों में हुई। उन्होंने काशी हिंदू विश्वविद्यालय से हिंदी भाषा और साहित्य में एम० ए० किया। वे छात्र जीवन से ही राजनीति में गहरी रुचि लेने लगे थे। आजादी की लड़ाई में उन्होंने सक्रिय भागीदारी निभाई । 1942 के आंदोलन में वे जेल गए और निर्मम यातनाएँ सहीं । लक्ष्मीनारायण सुधांशु का साहित्यिक जीवन एक कथाकार के रूप में छात्रावास से ही आरंभ हो गया था ।
‘भ्रातृप्रेम’ नामक उनका एक उपन्यास 1926 में तथा उनके दो कहानी संकलन ‘गुलाब की गलियों और ‘रसरंग’ क्रमशः 1928 और 1929 ई० में प्रकाशित हो चुके थे। परंतु कथाकार के रूप में उनका कोई खास स्थान नहीं बन पाया । साहित्यिक क्षेत्र में उनकी विशेष प्रसिद्धि एक सुधी समीक्षक के रूप में है। ‘काव्य में अभिव्यंजनावाद’ तथा ‘जीवन के तत्त्व और काव्य के सिद्धांत’ उनके प्रसिद्ध ग्रंथ हैं।
जिनमें उन्होंने मनोविज्ञान, सौंदर्यशास्त्र तथा प्राचीन भारतीय काव्यशास्त्र का समन्वय कर अपनी एक अलग आलोचना पद्धति विकसित की । सुधांशु जी समर्थ पत्रकार और उच्चकोटि के संस्मरण लेखक भी थे। उन्होंने ‘अवंतिका’ जैसी मशहूर पत्रिका का संपादन किया था। विशिष्ट साहित्यकारों तथा राजनेताओं से संबद्ध उनके संस्मरणों का संग्रह ‘व्यक्तित्व की झाँकिया’ 1971 ई० में प्रकाशित हुआ।
‘वियोग’ उनका प्रसिद्ध गद्यकाव्य है जिसकी रचना उन्होंने अपनी पहली पत्नी के आकस्मिक निधन पर की थी। साहित्य रचना के अतिरिक्त अनेक प्रांतीय एवं अखिल भारतीय स्तर की साहित्यिक संस्थाओं से संबद्ध रहकर उन्होंने हिंदी की यथेष्ट सेवा की।
ग्राम – गीत का मर्म
किसी देश के काव्य का उद्भव साधारणतः वहाँ की बतकथाओं या ग्राम-गीतों से होता है। उनके उत्तरोत्तर कलात्मक विकास में मानव जीवन के महत्त्व की संहति तथा उसकी विविधता का आलोचन रहता है । सामाजिक जीवन और काव्य, दोनों को मिलाकर देखने से यह पता चलता है कि समाज की धारणाओं के मध्य में जीवन का प्रवाह किस दिशा में, कितनी दूर तक, जा सका है।
परिस्थिति की परवशता के कारण जीवन किस सीमा तक पंगु बना है और कहाँ तक उसने परिस्थिति तथा समाज की रूढ़ियों पर विजय पाई है। ग्राम-गीतों में मानव-जीवन के उन प्राथमिक चित्रों के दर्शन होते हैं, जिनमें मनुष्य साधारणतः अपनी लालसा, वासना, प्रेम, घृणा, उल्लास, विषाद को समाज की मान्य धारणाओं से ऊपर नहीं उठा सका है और अपनी हृदयगत भावनाओं को प्रकट करने में उसने कृत्रिम शिष्टाचार का प्रतिबंध भी नहीं माना है।
उनमें सर्वत्र रूढ़िगत जीवन ही नहीं है, प्रत्युत कहीं-कहीं प्रेम, वीरता, क्रोध कर्त्तव्य का भी बहुत ही रमणीय, बाह्य तथा अंतर्विरोध दिखाया गया है। जीवन की शुद्धता और भावों की सरलता का जितना मार्मिक वर्णन ग्राम-गीतों में मिलता है, उतना परवर्ती कला-गीतों में नहीं ।
जीवन का आरंभ जैसे शैशव है, वैसे ही कला-गीत का ग्राम-गीत है। ग्राम-गीत संभवतः वह जातीय आशु कवित्व है, जो कर्म या क्रीड़ा के ताल पर रा गया है। गीत का उपयोग जीवन के महत्त्वपूर्ण समाधान के अतिरिक्त साधारण मनोरंजन भी है, ऐसा कहना अनुपयुक्त न होगा । मनोरंजन के विविध रूप और विधियाँ हैं।
स्त्री-प्रकृति में गार्हस्थ्य कर्म-विधान की जो स्वाभाविक प्रेरणा है, उससे गीतों की रचना का अटूट संबंध है । चक्की पीसते समय, धान कूटते समय, चर्खा कातते समय, अपने शरीर-श्रम को हल्का करने के लिए स्त्रियाँ गीत गाती हैं। उस समय उनका अभिप्राय साधारणतः यही रहता है कि परिश्रम के कारण जो थकावट आई रहती है।
उससे ध्यान हटाकर अन्यथा मनोरंजन में चित्त संलग्न किया जा सके । इनके अतिरिक्त कुछ ऐसे गीत भी हैं, जो भाव की उमंग में गाए गए हैं। जन्म, मुंडन, यज्ञोपवीत, विवाह, पर्व-त्योहार आदि के अवसर पर जो गीत गाए जाते हैं, उनमें उल्लास और उमंग की ही प्रधानता रहती है । उनके गीतों का मुख्य विषय पारिवारिक जीवन है ।
प्रेम, विवाह तथा पतोहू और सास-ससुर के बर्ताव, माँ, भाई, बहन का स्नेह आदि बातें ही ज्यादातर गीतों में पाई जाती हैं । स्त्री-प्रकृति का अनुकरण पुरुषों ने भी किया । हल जोतने, नाव खेने, पालकी ढोने आदि कामों के समय गाए जाने लायक गीत पुरुषों ने भी बनाए । किंतु सब मिलाकर ग्राम-गीतों की प्रकृति स्त्रैण ही रही, पुरुषत्व का आक्रमण
प्रेम-दशा जितनी व्यापकत्व-विधायिनी होती है, जीवन में उतनी और कोई स्थिति नहीं । प्रप्रेम या विरह में समस्त प्रकृति के साथ जीवन की जो समरूपता देखी जाती है वह क्रोध, शोक, उत्साह, विस्मय, जुगुप्सा आदि में नहीं । विरहाकुल पुरुष पशु, पक्षी, लता, द्रुम सबसे अपनी वियुक्त प्रिया का पता पूछ सकता है, किंतु क्रुद्ध मनुष्य अपने शत्रु का पता प्रकृति से नहीं पूछता पाया जाता । यही कारण है कि प्रेमिका या प्रेमी प्रकृति के साथ अपने जीवन का जैसा साहचर्य मानते हैं, वैसा और कोई नहीं । मनोविज्ञान का यह तथ्यं काव्य में एक प्रणाली के रूप में समाविष्टकर लिया गया है।
प्रिय के अस्तित्व की सृष्टि-व्यापिनी भावना से जीवन और जगत् की कोई वस्तु अलग नहीं रह सकती । जीवन का यह उत्कर्ष तथा विकास प्रेम-दशा के अतिरिक्त अन्यत्र सुलभ भी नहीं । वृक्ष, लता, पशु, पक्षी जीवन के अनादि सहचर हैं। प्रकृति का यह साहचर्य अब सभ्य जीवन से बहुत दूर हट गया है, लेकिन गमले के पौधों और पिंजड़े के पक्षियों का साथ शायद नहीं छूट सकेगा ।
अपने सुख-दुख के भावों को उनपर आरोपित कर, हम उन्हें स्पंदित करते ही रहते हैं। काव्य में भी जीवन की ऐसी व्यापकता के अभाव में मानो हम विह्वल से बने रह जाते हैं। प्राण-भक्षक को भी रक्षक समझने की शक्ति प्रेम में ही है।
ग्राम-गीतों में ऐसे वर्णन बहुत हैं, जहाँ नायिका अपने प्रेमी की खोज में बाघ, भालू, साँप आदि से उसका पता पूछती चलती है। आदिकवि वाल्मीकि ने विरह-विह्वल राम के मुख से सीता की खोज के लिए न जाने कितने पशु-पक्षी, लता-दुम आदि से पता पुछवाया है। इसके अतिरिक्त सीता के अनुसंधान तथा उनके पास राम का प्रणय-संदेश पहुँचाने के लिए,
जो हनुमान को दूत बनाकर तैयार किया, वह काव्य में इस परिपाटी का मार्ग दर्शक ही हो गया। इसके उपरांत मेघदूत, पवनदूत, हंसदूत, भ्रमरदूत आदि न मालूम, कितने दूत प्रेम-संभार के लिए आ धमके । अब तो वैज्ञानिक युग में टेलीफोन, टेलीग्राफ, रेडियो आदि यंत्र दूत बने ही, पोस्टमैन को भी यह मर्यादा मिलनी चाहिए । कला-गीतों में पशु, पक्षी, लता द्रुम आदि से जो प्रश्न पूछे गए हैं, उनके उत्तर में वे प्रायः मौन रहे हैं । विरही यक्ष का मेघदूत भी मौन ही रहा है, किंतु ग्राम-गीत का दूत मौन नहीं रहा है।
अभ्यास प्रश्न ग्राम – गीत का मर्म
1. ‘ग्राम-गीत का मर्म’ निबंध में व्यक्त सुधांशु जी के विचारों को सार रूप में प्रस्तुत करें ।
2. जीवन का आरंभ जैसे शैशव है, वैसे ही कला-गीत का ग्राम-गीत है । लेखक के इस कथन का क्या आशय है ?
3. गार्हस्थ्य कर्म-विधान में स्त्रियाँ किस तरह के गीत गाती हैं ?
4. मानव जीवन में ग्राम-गीतों का क्या महत्त्व है ?
5. “ग्राम-गीत हृदय की वाणी है, मस्तिष्क की ध्वनि नहीं ।” -आशय स्पष्ट करें ।
6. ग्राम-गीत की प्रकृति क्या है ?
7. कला-गीत और ग्राम-गीत में क्या अंतर है?
8. ‘ग्राम-गीत का ही विकास कला-गीत में हुआ है ।’ पठित निबंध को ध्यान में रखते हुए उसकी विकास-प्रक्रिया पर प्रकाश डालें ।
9. ग्राम-गीतों में प्रेम-दशा की क्या स्थिति है ? पठित निबंध के आधार पर उदाहरण देते हुए समझाइए ।
10. ‘प्रेम या विरह में समस्त प्रकृति के साथ जीवन की जो समरूपता देखी जाती है, वह क्रोध, शोक, विस्मय, उत्साह, जुगुप्सा आदि में नहीं ।’ आशय स्पष्ट करें ।
11. ग्राम-गोतों में मानव जीवन के किन प्राथमिक चित्रों के दर्शन होते हैं ?
12. गीत का उपयोग जीवन के महत्त्वपूर्ण समाधान के अतिरिक्त साधारण मनोरंजन भी है । निबंधकार ने ऐसा क्यों कहा है?
13. ग्राम-गीतों के मुख्य विषय क्या हैं ? निबंध के आधार पर उत्तर दें ।
14. किसी विशिष्ट वर्ग के नायक को लेकर जो काव्य रचना की जाती थी । किन स्वाभाविक गुणों के कारण साधारण जनता. के हृदय पर उनके महत्त्व की प्रतिष्ठा बनती थी ?
15. ग्राम-गीत की कौन-सी प्रवृत्ति अब काव्य-गीत में भी चलने लगी है ?
16. ग्राम-गीत के मेरुदंड क्या हैं ?
17. ‘प्रेम-दशा जितनी व्यापक विधायिनी होती है, जीवन में उतनी और कोई स्थिति नहीं ।’ प्रेम के इस
स्वरूप पर विचार करें तथा आशय स्पष्ट करें ।
18. ‘कला-गीतों में पशु-पक्षी, लता-हुम आदि से जो प्रश्न पूछे गए हैं, उनके उत्तर में वे प्रायः मौन रहे हैं। विरही यक्ष का मेघदूत भी मौन ही रहा है।’ लेखक के इस कथन से क्या आप सहमत हैं ? यदि हैं तो अपने विचार दें ।
19. ‘ग्राम-गीत का मर्म’ निबंध के इस शीर्षक में लेखक ने ‘मर्म’ शब्द का प्रयोग क्यों किया है ? विचार कीजिए ।
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